मुंबईत ‘हम लोग’ नावाची एक संस्था आहे. मुंबई काँग्रेसचे एक पदाधिकारी विजय सिंग यांच्या नेतृत्वात उत्तर भारतीय त्यात प्रामुख्याने आघाडीवर आहेत. मुंबईच्या विविध समस्यांवर ती काम करते. शिवाय महत्त्वाचं म्हणजे महिन्यातून एकदा शहरातले हिंदी साहित्यिक एकत्र आणून त्यांच्यात परस्परसंवाद वाढवण्याचं कामही ही संस्था करते.
ते दरवर्षी ‘हमलोग गौरव सन्मान’ नावाचा पुरस्कार देतात. यंदा त्यांच्या पुरस्कारांमधे माझं नाव होतं. एप्रिलमधे त्याचा कार्यक्रम पार्ल्यात झाला. पुरस्काराचा आनंद होताच. पण पुरस्कार पार्ल्यात दिल्याचा अधिक आनंद होता. J दुसरा आनंद, माझ्यासोबत हा पुरस्कार मिळाला तुळशीदास भोईटेला. तुलसी माझा जवळचा मित्र. मोठा पत्रकार. सोबतच हिंदीवर प्रेम असणारे उत्तम लेखक अनंत श्रीमाली आणि सामनामधील ले आऊटचे जादूगार भालचंद्र मेहेर यांनाही पुरस्कार देण्यात आला.
तिथलं माझं हिंदीतलं भाषण बरं झालं. त्यातले महत्त्वाचे मुद्देः एका हिंदी भाषकांच्या संस्थेकडून पुरस्कार मिळतोय याचा आनंद आहे. हिंदी भाषा फक्त युपी बिहारवाल्यांच्या बापाची पेंड नाही. ती त्यांच्याइतकीच आमचीही आहे कारण ती राष्ट्रभाषा आहे. कुणी बिहारी पद्धतीने हिंदी बोलणार असेल, युपीच्या ढंगात हिंदी बोलणार असेल. तर मी मराठी हेलाची मराठी बोलणार. त्यात काही चुकीचं नाही. आणि खरी राष्ट्रभाषा ही आपली मुंबईचीच हिंदी आहे. तुपात तळलेली बनारसची हिंदी किंवा तंदूरीसोबत भाजलेली लखनौ हैद्राबादेची हिंदी ही राष्ट्रभाषा नाहीच नाही. कारण त्या काश्मीर ते कन्याकुमारी सगळ्यांना नाही कळत. तिथे सगळ्यांना सामावून घेणारी आपली मुंबईची हिंदीच कळते. आज गरज आहे ती पंढरपुरात जन्मून आजच्या पाकिस्तानापर्यंत पोहोचणा-या संत नामदेवांचा मराठी वारसा जपण्याची. नामदेवांनी एक दोन नाही सहा भाषांतून रचना केलीय. त्यांचा कबीर, नानकांपासून मीरा, नरसीपर्यंत थेट प्रभाव आहे. त्याचबरोबर हिंदीतले रईदास इथे भाषेचा कोणताही व्यत्यय न होता इथे रोहिदास बनतात आपले होतात. कवी भूषण इथे येऊन शिवरायांवर कवनं रचतो. ही सांझी विरासत आपल्याला हवीय. आज राजकारणासाठी काही लोक मराठी हिंदीत भांडणं लावत आहेत. अशावेळेस शेकडो वर्षं एकमेकांच्या गळ्यात गळे घालून चालणा-या या दोन संस्कृतींनी एकमेकांशी संवाद साधण्याची गरज आहे.
कार्यक्रमाला हिंदी साहित्यिक वर्तुळातली बरीच लोकं होतं. सगळी आपुलकीनं भेटली. बरं वाटलं. मला मानपत्र दिलं त्यात ‘टीवी पत्रकारिता में मानवीय मूल्यों की अभिवृद्धी करने के लिए’ पुरस्कार दिल्याचं म्हटलं होतं. आणखी बरं वाटलं. भाषणासाठी नाही, पण खरंच हा एकमेकांमधला संवाद वाढवण्याची खूप गरज आहे. ज्यांची मुळं इथल्या मातीत कितीतरी खोलवर रुजलीत, असे कितीतरी हिंदी भाषक मला माहीत आहेत. पण त्यांच्या महाराष्ट्रातील योगदानाविषयी आपल्याला काहीच माहिती नाही. आणि मराठी संस्कृतीची ओळख त्यांना करून देण्यासाठीही आपण फारसे काही प्रयत्न केलेले नाहीत.
त्यादृष्टीने नीट काम व्हायला हवंय, असं वाटतं. एक छोटा प्रयत्न मी वर्षभरापूर्वी केला होता. महाराष्ट्र निर्मितीच्या सुवर्ण महोत्सवाच्या निमित्ताने म्हणजे वर्षापूर्वीच्या एक मे रोजी एक लेख दोपहर का सामना मधे लिहिला होता. लेख हिंदीतून होता. विषय होता, ‘मुंबई आमचीच’ क्यों कहते हैं मराठी ?
२१ नवंबर १९५५. मुंबई इलाखे की विधानसभा में मुंबई शहर महाराष्ट्र से अलग करने के प्रस्ताव को पारित करना मोरारजी देसाई सरकार ने तय कर लिया था. अपने शहर से ही खुद को बेगाना होता देख मुंबई के मराठी आदमी का खून खौल उठा. सभी युनियनोंने हडताल का आह्वान किया. विधानसभा पर मोर्चा निकाला जाना था. विधानसभा तब रिगल सिनेमा के सामने महाराष्ट्र पुलिस के मुख्यायल में हुआ करती थी. सुबह से ही मुंबई के सभी रास्ते फोर्ट की तरफ जा रहे थे. पुलिस बढती भीड को रोकने की पूरी कोशिश कर रही थी. बाबूराव जगताप, भगीरथ झा, विनायक भावे जैसे समाजवादी नेता जत्थों का नेतृत्व कर रहे थे. लाठीचार्ज, आंसू गैस किसी से भी लोग रुक नहीं रहे थे. पुलिस ने गोलियां दागनी शुरू कर दी, लेकिन लोग पीछे नहीं हटे.
गिरगाव के फणसवाडी में रहनेवाला सीताराम पवार मॅट्रिक में पढ रहा था. १९ साल की उम्र थी. घर में कह कर निकला था कि कौन्सिल हॉल पर झंडा लगाकर ही वापस लौटूंगा. वो वापस घर नहीं लौट पाया. सीताराम अकेला नहीं था. मोरारजी के पुलिस की गोली से पंधरा जवान शहीद हो गए. विधानसभा में प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया. लेकिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इतनेसे कहां रुकनेवाले थे.
१६ जनवरी १९५६ रात साढे आठ बजे थे. सभी के कान रेडियो को लगे थे. नेहरूजी ने मुंबई महाराष्ट्र राज्यमें शामिल करने से मना कर दिया. मुंबई को केंद्रशासित बनाने की घोषणा हुई. लोग रास्ते पर उतर आए. एक ट्राम और दो बसें जलाईं गईं. पुलिस ने लोगों के इस आक्रोश को बेरहमीसे कुचलना शुरू किया. अंधाधुंद गोलियां चलाई जा रहीं थी. रास्तों पर पुलिस की गाडियां बिना देखे गोलियां बरसाते हुए दौड रही थी. रात साढे दस का समय होगा. बंडू गोखले गिरगांव में मुगभाट के पास नाईट स्कूल से घर लौट रहा था. मॅट्रिक की एक्झाम देनी थी उसे. दो छोटे भाईयोंकी जिम्मेदारी थी उसके सिर पर. पुलिस की एक गोली उसके छाती में जा घुसी. रात डेढ बजे अस्पताल में उसने दम तोड दिया. दुसरे दिन सुबह सिम्प्लेक्स मिल का मजदूर निवृत्ती मोरे पुलिस गोलीबारी का बली चढ गया. उसकी नई-नई शादी हुई थी. दुसरी ओर बेलगाम भी ऐसे ही दहक रहा था. मारुती बेन्नालकर ने पुलिस की बंदुकों के सामने सीना तान कर कहा, हिंमत है तो गोली चलाओ. गोली उसे सीनेको भेद आगे बढी. उसकी उम्र थी २४ साल और उसकी अनाथ हुई बेटी की उम्र तीन महिने.
ये सूनकर कौन चूप बैठता. पुरी मुंबई जल उठी. कृष्णा कॉटेज की चारसौ महिलाओंने अपने छोटे बच्चोंको साथ लेकर ‘हमे मारो रैली’निकाली. मांग थी गोलीबारी रोकी जाए. उनकी रैली देख पुलिस भी थम गई. पर सरकार के आदेश रुके नहीं. गोलियां चलती रहीं. लगातार तीन साल चलती रहीं. १०६ शहीदों का खून लेकर ही वो थमी.
पंचशील अपना कर चीनियों को गले लगाने चले शांतिदूत जवाहरलालजी को मुंबई के मराठी अपने नहीं लगे. भारतरत्न मोरारजी देसाई क्या गांधीवाद को शिवाम्बू की नशा में चूर हो भूल गये थे ? विधानसभा में विरोधी पार्टी के एकमेव सदस्य बी. सी. कांबळे ने इस अत्याचार की जानकारी सरकार के मुंह से ही बुलवाई. वे विधानसभा मे इसलिए अकेले थे क्योंकि बाकी सब ने इस्तीफा दे दिया था. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की पार्टी शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन के विधायक बी. सी. कांबळे के शब्दोंमें इस अत्याचार का वर्णन ऐंसे था-
‘ मुंबईमें मोरारजी सरकारने कुल ४६१ बार गोलीबारी की. सरकारी आकडों के अनुसार ८० की मौत हुई और ३८१ गंभीर जख्मी हुए. १६ जनवरी से अब तक मुंबई में ५४४ गोलियां दागी गयी. अर्थात हर दो मिनट में एक गोली दागी जा रहीं थी. गोलियों से हुए जख्मों का वर्णन रोंगटे खडे करने वाला हैं. २४ लोगों माथे पर गोलियां लगी थी. १६ के सीनें से आरपार हुई. दो लोगों के आंखों के पुतलियों पर गोलीने निशाना साधा. १७ की आंते पेट से बाहर निकल आई. दो के पिछवाडे में गोली लगी थी. ३२ लोगों ने गोली लगने पर उसी जगह दम तोड दिया. १८ साल से कम उम्र के शहीदों की संख्या आठ है. मरने वालों में एक तीन महिनों का बच्चा भी हैं.’
बॅरिस्टर जयकर ने महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास इनके साथ जालियांवाला बाग हत्याकांड के लिए काँग्रेस की तरफ से सत्यशोधन कमिटी पर काम किया था. उन्होंने लिखा हैं, ‘आज मुझे अपने ही सरकार के अत्याचार देख जालियांवालां हत्याकांड की याद आ रहीं है. दोनो जगह गोलियां चलाने का कारण एक ही दिया था, सरकार गिराने की साजिश. अब स्वराज में भी अंग्रेजी राज की पुनरावृत्ती हो, इससे बडा दुर्भाग्य क्या होगा?’
आज तक देश पर आई हर आंच का मुकाबला करने को तत्पर रहनेवाले महाराष्ट्र पर ही राष्ट्रविरोधी होने का आरोप लग रहा था. राज्य पुनर्रचना को लेकर लगे सभी आयोग औऱ कमिशनों पर मुंबई के सेठियों ने डोरे डाले थे. उनके थैलियों का प्रभाव छिपाने के लिए उन्होंने आम मराठी माणूस पर कीचड उछाला था. मराठी आदमी आक्रमक है, उद्दंड है, वो मुंबई के कॉस्मोपोलिटन रूप को हमेशा नहीं बचा पाएगा. ऐसी बाते कही गई थी. मुंबई के सर्वमान्य इतिहास को गलत बताया जा रहा था. इतनी शहादत देने के बाद भी मराठी आदमी की बात सुनने के लिए नेहरू तैयार नहीं थे. उल्टा मराठी लोगों को ही गाली सुननी पडी.
१०६ शहिदों को गुंडा करार दिया. न ही कोई इन्क्वायरी हुई थी, ना ही कोई जांच. आज पुलिस की गोलीसे एक भी आदमी मरता है, तो उसकी जांच होती हैं. अंग्रेज भी ये करते थे. पर इतने गोलीबारी के बाद बार बार मांग करने के बावजूद कोई जांच नहीं हुई. आज हम संयुक्त महाराष्ट्र स्थापना की स्वर्ण जयंती मना रहे है. लेकिन आज तक उस जमाने के सभी रेकॉर्ड छिपाए गए है. १०६ शहीदों के नाम भी बडी मुश्किल से सामने आए हैं. शहीदों का स्मारक बनने के लिए भी आंदोलन करना पडा है. मुंबई के नाम के लिए भी मराठी माणूस इसलिए आग्रही बना रहा. आज मद्रास से लेकर बंगलोर तक सबके नाम बदले. पर गालियां सिर्फ मुंबई ने खाई हैं.
मुंबई महाराष्ट्र से जोडने की मांग में क्या गलत था ? बाकी सबको तो अपने राज्य मिले थे. तो मराठी ही क्यों चूप रहता ? डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, विनोबा भावे, देश के पहले वित्तमंत्री सी. डी. देशमुख, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया, फिरोज गांधी इन सभी ने मुंबई को महाराष्ट्र के साथ जोडने की हिमायत की थी. इस मुंबई में तब भी और आज भी मराठी भाषियोंकी संख्या ४५ प्रतिशत के आसपास थी. उसकी सभी भौगोलिक सीमाएं महाराष्ट्र से ही जुडी है. इस शहर के पानी, बिजली, सब्जी, सडकें सभी महाराष्ट्र से ही आती है. फिर भी मुंबई महाराष्ट्र की मानने से नेहरू इन्कार करते थे. जनतंत्र के मसीहा कहलाने वाले और नेहरू घराने के मूलपुरुष का विरोध करने का राजनीतिक खामियाजा महाराष्ट्र ने हमेशा भुगता है और भुगत रहा है. मुंबई पाने के लिए महाराष्ट्र ने सिर्फ खूनही नही बहाया. अपितु बडा बलिदान किया है. मुंह बंद कर दशकों तक मार खाई है. मराठी माणूस ने इस आंदोलन को सिर्फ भाषा का आंदोलन नहीं तो शोषण के विरोध का आंदोलन माना था. फिरभी उसकी इस व्यापक भावना को किसीने देखा नहीं.
इसलिए जब कोई कहता है, मुंबई पुरे भारत की है. तब वो गलत नहीं होता. पर मराठी आदमी चिल्लाता हैं, ‘मुंबई आमचीच’. क्योकि उसने मुंबई पाने के लिए अपना सबकुछ गंवाया है. उसे भी पता है, मुंबई सबकी हैं, पर ऐसा कहने वाले बडे लोगों का कपट उसने देखा हैं. ‘मुंबई सबकी’ कहने वालों के खाने वाले दातों के घाव उसने बीस साल प्रत्यक्ष सहे हैं. इसलिए कोई मुंबई पर अपना हक जमाने आता है, तब उसके घाव हरे हो जाते है.
जब मराठी माणूस कहता हैं मुंबई आमचीच तब उसके पीछे इन जख्मों की वेदना होती है. किसी का द्वेष नहीं. पर आज भी कोई सुनने के लिए तैयार नहीं. गालियां आज भी मराठी आदमी ही खा रहा है और खाएगा. और जोरोंसे कहता रहेगा, ‘मुंबई आमचीच.’
‘मुंबई आमचीच.’...
ReplyDeletesachin fakta ekach sangen hindi rashtra bhasha nahi tar rashtriya bhasha ahe bhartala ajun kuthli rashtrabhasha nahi ahe
ReplyDeleteसचिन दादा, एकदम बरोबर लिहले आहे. मराठी माणसांनी अजून किती हाल सोचायचे ?? मुंबई मिळवली आपण, पण आपल्या बेळगावचे काय ???
ReplyDeleteSachin punha ekda Dhannywad.farach chhan lekh aahe.Mumbai Maharashtrachich kashi ani ka he sampurn deshbandhvanna kalayalach pahije.Jai Maharashtra, Jai Hind.
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